________________
ये ही आठो निमितज्ञान हैं, जग में अचरजकारी। तिनको देखि भरम सब जावे, और घने गुण धारी।। सम्यक जुत यह महाज्ञान नद याको मुनि अवगाहैं।
ऐसो लखि के मैं भी मन वच, अध्य जजों हरषाहैं।। ओं ह्रीं श्रीसम्यङ्-निमित्तश्रुतज्ञानाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
लोक असंखे क्षेत्र सुजाने, काल असंखो भाई। द्रव्य लखे परमाणू, सूक्षम, गांव आदि अधिकाई।। ऐसो सर्वावधी ज्ञान लखि, मुनि बिन और न पावे।
तातें मैं या ज्ञान जजत हों, यातें मो ढिग आवे॥ ओं ह्रीं श्रीसर्वावधिज्ञानाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
लोक असंख्यो जाने क्षेत्रो, वरष असंख्यो कालो। कार्माण तन सुख में जोवे, द्रव्य अपेक्षा बालो।। परमावधि सु ज्ञान बड़ा है, सर्वावधि लघु पावे। तातें मैं यह ज्ञान जजत हो, यातें मो ढिग आवे।। ओं ह्रीं श्रीपरमावधिसम्यग्ज्ञानाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
तीनों लोक क्षेत्र की जाने, काल पल्य परिमाने। द्रव्य अपेक्षा कार्माण तन, भाव यथावत् जाने।। अति उत्तम यह ज्ञान विषय है, देशावधी जनावे। तातें मैं यह ज्ञान जजत हों, यातें मो ढिग आवे।। ओं ह्रीं श्रीदेशावधिसम्यग्ज्ञानाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
297