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मुनी सहें वावीस परीषह, तिन फल सकल जताये।
देव अचेतन नर तिर्यक्कृत, जो उपसर्ग बताये।। उत्तराध्ययन प्रकीर्णक मांहीं, सकल शुभाशुभ जानो।
या अँग को मैं लेय अध्य कर, पूजों मन वच आनो।। ओं ह्रीं श्रीउत्तराध्यनप्रकीर्णकांगश्रुतज्ञानाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
यह आचार मुनीश्वर जोगा, यह जोगा है नाहीं। हो अयोग्य आचरण कभी तो, दण्डयोग मुनि माहीं।। इत्यादिक अंग कल्पविहारै, कहो सकल चित मानो।
या अंग को मैं लेय अध्य कर, पूजों मन वच आनो।। ओं ह्रीं श्रीकल्पव्यवहारप्रकीर्णकांगश्रुतज्ञानाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि की किरिया द्रव्यक्षेत्र पुनः काल भव यों जागा। सो ही विधि योगीश्वर ठाने, उपजे आत्म-प्रयोगा।।
कल्पाकल्प प्रकीर्ण अंग में, ऐसी वार्ता जानों।
या अँग को मैं लेय अध्य कर, पूजों मन वच आनो।। ओं ह्रीं श्रीकल्पाकल्पप्रकीर्णकांगश्रुतज्ञानाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जिनकल्पी अरु स्थविरकल्पी, शिक्षा दीक्षा दानी। पोषण आतम शुद्धि समाधी, किरियासकल बखानी।।
उत्तमचर्या या आराधन, ओर घनीविध जानो।
या अँग को मैं लेय अध्य कर, पूजों मन वच आनो।। ओं ह्रीं श्रीमहाकल्पप्रकीर्णकांगश्रुतज्ञानाय अयम् निर्वपामीति स्वाहा।
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