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यह द्यूत व्यसन है पाप-मूल, यह खेल लहे जिय दुःखशूल। दे अपयश वध बन्धन सु जोय, इस बिन जजि सुध सम्यक्त्व सोय।। ओं ह्रीं द्युतव्यसनरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
आमिष-खाये मन अशुचिवान, हिंसा या सम होवे न आन। तिस देखत ही मन मलिन होय, इस बिन जजि सुध सम्यक्त्व सोय॥ ओं ह्रीं आमिषव्यसनरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
पीके मदिरा मूर्छा लहाय, सब सुध बुध अपनी दे गमाय। यह मदिराव्यसन सुधर्म खोय, इस बिन जजि सुध सम्यक्त्व सोय।। ओं ह्रीं मदिराव्यसनरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
गणिका गिन पातल जूठ जेम, अति लोकनिन्द्य परसिद्ध येम। यह व्यसन नरकपद-दाय जोय, इस बिन जजि सुध सम्यक्त्व सोय।। ओं ह्रीं गणिकाव्यसनरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जे जीव घास खा वन वसाय, तिन को मारे पारधि कुभाय। यह व्यसन नरक मारग सुजोय, इस बिन जजि सुध सम्यक्त्व सोय।। ओं ह्रीं आखेटव्यसनरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अयम् निर्वपामीति स्वाहा।
परद्रव्य हरें दुठ चोर जान, लहि वध बन्धन जगनिन्द्य थान। यह चौर्यव्यसन दुखदाय जोय, इस बिन जजि सुध सम्यक्त्व सोय।। ओं ह्रीं चौर्यव्यसनरहिताय श्रीसम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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