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धर्मी जन जोवे, हरष न होवे, समचित सोवे अघ-हारी। वृषथान निहारे, नेह न धारें, सकति सम्हारे, अधिकारी।। यह बत्सल नाहीं, पाप बढ़ाई, तज मन लाई, बुध आनी। सम्यक् सुध सोई, जजि अघ खोई,जिनध्वनि जोई, मुनि मानी।। ओं ह्रीं अवात्सल्यमलरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
उत्सव नहिं जाने, हरष न आने, नाहिं सुहाने, मन मांहि। नहिं ताहि सरावे, जस नहिं गावे, पाप कमावे, चित ठांही।। __यह दोष बड़ा है, त्याग जुड़ा है, धर्म बड़ा है, मन आनी।
सम्यक् सुध सोई, जजि अघ खोई, जिनध्वनि जोई, मुनि मानी।। ओं ह्रीं अप्रभावनामलरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
चौपाई छन्द ना सर्वज्ञ, न तारन हार, ताको पूजत देव निहार। सो यह देवमूढ़ता जोय, इस बिन जजि सुध समकित सोय।। ओं ह्रीं देवमूढ़तारहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म दया बिन सो है सही, धारण करे प्रतीक्षा नहीं। सो यह धर्ममूढ़ता सोय, इस बिन जजि सुध समकित सोय।। ओं ह्रीं धर्ममूढ़तारहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
वीतराग नहिं नगन शरीर, सेवे कुगुरु राग धर धीर। सो यह गुरूमूढ़ता जोय, इस बिन जजि सुध समकित सोय।। ओं ह्रीं गुरुमूढ़तारहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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