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पर वस्तु सु जोवे, घिन चित बोवे, अरति बढ़ोवे, मन माँहीं।
यह वस्तु बुरी है, क्यों जु धरी है, कौन करी है, दुखदाई।। यह दोष विचिकित्सा, अघ को अंशा, त्यागो मनसा, श्रुतज्ञानी ।
सम्यक् सुध सोई, जजि अघ खोई, जिनध्वनि जोई, मुनि मानी ।। ओं ह्रीं विचिकित्सामलरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जो भेद न पावे, शीश नवावे, भक्ति बढ़ावे, वेद कही। सब को गुरु माने, ज्ञान न आने, धर्म न जाने, शुद्ध सही || यह मूढ़ स्वभावा, पाप बढ़ावा, तज सुख दावा, मन आनी । सम्यक् सुध सोई, जजि अघ खोई, जिनध्वनि जोई, मुनि मानी।। ओं ह्रीं मूढ़तामलरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
पर अवगुण जोई, ढके न सोई, मुख कह कोई, पाप धरा । पर के छल देखे, कहत विशेखे, सो अघ भेखे जान खरा ।।
कह दोष पराया, यह अघ भाया, त्याग सुभाया, बुध आनी । सम्यक् सुध सोई, जजि अघ खोई, जिनध्वनि जोई, मुनि मानी।। ओं ह्रीं अनुपगूहनमलरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
लख धर्म पराया, दोष बढ़ाया, पाप उपाया, मन ल्याई । या धर्म बढ़ाऊँ, सो विधि लाऊँ, ज्ञान बढ़ाऊँ, चित ल्याई ॥
यह अवगुण जानो, अतिथि सुमानो, तजि हित आनो शुभ जानी।
सम्यक् सुध सोई, जजि अघ खोई, जिनध्वनि जोई, मुनि मानी। ओं ह्रीं अस्थितिकरणमलरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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