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रत्नत्रय विधान (कविवर पण्डित टेकचन्द जी विरचित)
प्रस्तावना बेसरी छन्द सरधो जानो पालो भाई, तीनों में कर राग जुदाई। लै लै नीका द्रव्य सुसारा, पूजे पाओ मोक्षगारा।।
नाराच छन्द भला सुज्ञान दर्शना-चरित्तरा सुसार है। भवसमुद्रनाव मोक्ष-पन्थ का अधार है।। यही जु पन्थ सिद्धि का, नहीं जु और जानिये। जजों सुदर्श ज्ञान वा चरित्र भक्ति आनिये।। सार येहि तीन रत्न, पारखी मुनीन्द्र हैं। लहें जु राज छांडि या, बिना गुणी न सोह हैं।।
नहीं जु राग द्वेष ताहि, पाइये कदा सही। तीन रत्नरूप वस्तु, चित्त में जिन्हों लही।। मुनीन्द्र याहि पायके, न पांय फिर भवा सही। जिनेन्द्र याहि पायके, प्रिया शिवा तिया गही।
यही जु तीन मानका, जु मोक्षपन्थ जानका। यही जु ज्ञान केवला, निकट्ट वेग आनका।। यही जु तीन रत्न इन्द्र, चन्द्र को नहीं मिले। खगा फणीन्द्र चक्रि को, न भूप को धरा तलें।। मुनी बिना सराग के, न पाइये कभी सही। जु तीन होय एकठे, जिनेन्द्र के गुणा यही।। नमों जु ज्ञान दर्शना, चरित्र जो शिवा पथा। रहे सदा हिये सुभक्ति, मो तने इन्हीं कथा।। भवान्तरे मिलें सु मोहि, तीन रत्न आयके। चाह और मोय ना, सुनो जु अर्ज ध्यायकें।।
गीतिका दन्द ये तीन रत्न अपार मौलिक, पारखी विरलो सही। जिये मोह अन्ध न भेद पावे, खेद जो बहुतो लही।। होवे निकट भव अब्धि जाके, सो लहे सहजहिं भया।
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