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दोहा
तीर्थंकर निर्माण मिल, प्रकृति हनी तिन आठ । वसु विधि द्रव्य मिलायकर, जजों सिद्धकर ठाठ।।
ॐ ह्रीं अगुरुलघ्वष्टप्रकृतिघाताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥12॥
(कुसुमलता छन्द)
सूक्षम वादरजान, प्रकृति साधारण कहिये । त्रस स्थावर शुभ अशुभ स्थिर लहिये।। सुस्वर दुस्वर सुभग, और दुर्भग बखानिये। अपर्याप्त पर्याप्त, और आदेय जानिये।।
दोहा
अनादेय यशकीर्ति भनी, अयशकीर्ति जान। ये दश टुककी बीस हनी, पायो शिवथान।। ऊँ ह्रीं विंशतिप्रकृति विनाशनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
पैसठ पिण्ड अपिण्ड पुनि, अट्ठाईस बखान। नामप्रकृति सब त्रानवे, घात लियो शिवथान।। ऊँ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा॥9॥
(कुसुमलता छन्द)
गोत्रकर्म बलवान, प्रकृति दो ताको जानो । एक ऊँच पुनि द्वितीय, नीच कुल गोत्र बखानो।।
उच्च उदय पद उच्च, नीचके उदय नीच लहि।
इनहिं घाति शिवगये, तिनहिं पूजों सुचरण गहि॥ ॐ ह्रीं द्विप्रकारगोत्र कर्म विनाशनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
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