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वेस छन्द
अन्तराय अष्टम विधि जानो, ताकी पांच प्रकृति पहिचानो । दानान्तराय उदय जु आये, दान न देय सके न सुहावे।। लाभान्तराय उदय जु होई, कर उपाय लाभ ना कोई। भोगांतराय उदय जु जी के, भोग मिलें भोगे न खुशी के
दोहा
अन्तराय उपभोग के, जानों उदय सु माहिं। वस्त्राभूषण तैयार पर, चेतन भोगत नाहिं || वीर्यान्तराय के उदय, जीब न बीरज पाय । पांचों हित शिवपुर गये, पूजों मन बच काय ।। ऊँ ह्रीं पंचप्रकारान्तरायकर्म घाताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
कुसुमलता छन्द
ज्ञानावरणीय पांच, दरश की नव विधि जानो। कही वेदनी दोय, मोह अठ बीस बखानो। आयु तनी गनि चार, त्रानवे नाम की कहिये । गोत्र करम की दोय, पंच अन्तराय की लहिये।।
दोहा
आठ करम की प्रकृति सब, इक शत अड़तालीस | सबको हति शिवपुर गये, भये त्रिजग के ईश
ऊँ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
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