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अथ जयमाला- दोहा
पच्छिम पहुकर द्वीप में, विद्युन्माली मेरु । कनक मई अति सोहनौ, तीरथ निरमल घेर ॥1॥
॥वेसरी छन्द |
विद्युनमाली मेरु सुथाना, तहां जिन गेह पाप मलहाना। तिनकी उपमा को मुख गावै, सहस जीभ तें पार न पावैं।2।। रतन बिंब कंचन जेन गेहा, देखत जन मन उपजे नेहा। उदै पुन्य ताके तहां जावै, तुछ पुन धारी दरशन पावै ॥। 3 ॥ जाय देव खग इन्द्र धनिंदा, तिनमें पूरब भव जिन बंदा । हमसे हीन शक्ति नहीं जावैं, ताते हम यहां भावना भवै ॥ 4 ॥
शची सहित हरि देव मिलाई, जाय मेरु पूजे जिन पाई। गावैं गान भक्त मुख सेती, नटै नाचा नाना गति जेती ॥5॥
शची नचै हरताल बजावैं, कभू नचै हर शची नचावैं। हाव भाव सब लाला ठानै, चंचल पग कर तन द्रिग तानै ||6|| नचै आकाश भुमक भू जाई, कभूं दीखे कभूं अट्टश थाई । दीरघ तन कबहूं लघु होई, बजै ताल बैना धुन सोई ॥ 7॥
बजै तार तंदूरे भाई, बजै मृदंग नफीरी आई। सारंगी संहतार अपारा, बाजे बजे इत्यादिक सारा॥8॥ सबका सुर इकताल बजावैं, मीठे सुर बहु देवा गावैं। हाथन की अंगूरी पै आवैं, अपसर बहुती निरत करावैं॥9॥ ऐसे देव हरी तब जावैं, ऐसे भक्ति करै पुन्य लावै। जैजै शब्द करै मुख सोई, ताकरि पाए मैल निज धोई ॥10॥ ऐसे तौर हर सुर तहां जावे, वा खगराज भक्तवश आवैं। सोभी बहु विध सेवा ठानै, भाव समान महा पुन्य आनैं।।11।।
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