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याविध सुर खगकर नित सेवा, ऐसा मेर थान शुभदेवा । विद्युन्माली मेरु सुथाना, कवलों करों गुनन का गाना।।12।। तातैं जोभव पुन्य को चाहौ, तौ या मन्दिर कोशिर नाहौ। यह तीरथ शिव साधन ठामा, पुन्य बधनको है भवदामा।।13।।
दोहा
विद्युन्माली सेवते, पाप नसे भव खाय । जे भव पूजे भाव सों, ते निहचै शिव जाय।।14।। ॐ ह्रीं विद्युन्मालिमेरुसंबंधिजिनालयेभ्यो महार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
(इति विद्युन्मालिमेरु पूजा समाप्त)
समुच्चय जयमाला दोहा
मेरु सुदरशन जानिये, विजय अचल शुभ ठाम मंदिर विद्युन्मालिया, पांचों यह शुभ धाम।।1।
(मुनियानंद की चाल)
दीप जबू विषै मेरु सुदरशना । लाख जोजन कहा त्वंग नभ फरसना।। दूसरा धातकी खंड पूरब दिशा। मेरु विजय महाशोभ अतिलसा॥2॥ धातुकि खंड पश्चिम दिशा जानिये। तीसरा मेरु शुभ अचल सुख मानिये। अर्घ 'हुर विषै पूर्व दिश सारजी। मेरु मंदर कहा चतुरथा धारजी ॥3॥ दिशा पच्छम तनी अर्घ पुहकर सही । पांचमा मेरु विद्युन्माली कही। चार यह मेरु त्वंग सहस चौरासिया। कनक के सकल यह तीर्थ अघनासिया॥4॥
एक इक मेरु पै चार बन हैं सही। एक बन मांहि जिन थान चवा धुन कही।।
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