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याही मेरु पच्छिम दिश धरा, षोडश गिर बैताढ सु परा ।
तिन सब पै जिनजी के थान, सो हौं जजौं अर्घ श्रुति आन।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरु पश्चिमदिशायां षोडशविजयार्धपर्वतेषु षोडशजिनालयेभ्यो अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तर इस ही मेरु सुजाय, एक रूप गिर परवत पाय। जाके शीश एक जिन थान, सोहौं जजौं अरघ थुति आन
ॐ ह्रीं विद्युन्मालिमेरुत्तरदिश्येकविजयार्धपर्वतोपर्येक जिनालय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ दीप पहुकर के माहिं, दच्छिन इक्ष्याकार कहाहिं ।
ता ऊपर इक जिनवर थान, सोहौं जजौं अरघ थुति आन।।
ॐ ह्रीं विद्युन्मालिमेरु पुष्करार्द्ध दक्षिणदिश्येकेक्ष्वाकारोपर्येक जिनचैत्यालय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
याही दीप उत्तर दिश जाय, इक्ष्वाकार महा गिर पाय ।
तापै इक है जिनको थान, सोहौं जजौं अरघ थुति आन।।
ऊँ ह्रीं पुष्करार्धद्वीपोत्तरदिश्येकेक्ष्वाकारपर्वतसम्बन्धि जिनचैत्यालय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्युनमाला मेरु सुलार, एते थान जान सुखकार।
जो तीरथ हैं जिनके थान, सो हौं जजौं अर्घ श्रुति आन।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरुसंबंधि जिनालयेभ्यो महार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
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