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मणिमय दीपक लेय जोत परकाश जी। कंचन पातर धार होय प्रभु दास जी।। मेटन मिथ्या ध्यांत पूजने आय जी। पूज्य जिनालय विजयमेरु जुतपायजी।। ऊँ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप मनोज्ञ बनाय बंध दश डार जी। खेवन आयौ अगनि माहि थुति धारजी।। कर्म दाह फल चाह और नहीं आयजी। पूज्य जिनालय विजयमेरु जुतपायजी।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयेभ्यो धपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल लौंग बदाम सुपारी सारजी। खारिक आदि अनेक और फल धारजी।। कारण शिव फल लोम आप पे आयजी। पूज्य जिनालय विजयमेरु जुतपायजी।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयेभ्यो फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंध तंदुल पुह चरु ले दीपजी। धूप फला विध आठ अरघ शुभ टीपजी।। नाना सुख के काज पाप खयदायजी। पूज्य जिनालय विजयमेरु जुतपायजी।।
ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
प्रत्येक अर्घ (जनजंपि की चाल)
विजय मेरु की भौम में बन भद्रसाल सुखदाई जी। च्यार जिनालय मणिमई ते पूजो अर्घ बनाई जी।। मन वच भक्त लगाय कैं॥1॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिभद्रसाल वनस्थचतुर्जिनालयेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
नंदन वन या ऊपरै तिस महिमा अधिक विचारो जी। विजयमेरु शुभस्थान है यह तीरथ निर्मल जानोजी।। मन वच भक्त लगाय कैं।।2।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरुनंदनवनसम्बन्धिचतुर्जिनालयेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
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