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इस ऊपर वन सोम है तहां देव विद्याधर जावें जी। चारि जिनालय हैं तहां ते पूजों मैं अघ ढावैं जी।।
विजयमेरु तीरथसही तहां जिनथल मुनिशिव जावै जी ॥ मन वच भक्त लगाय ॥ 3 ॥ ऊँ ह्रीं विजयमेरु सौमनसवनसम्बन्धिचतुर्जिनालयेभ्यो अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पांडुक वन सब ऊपरे जहां रतनमई जिन गेहा जी। चारि जिनालय जिन कहे ते पूजों अरघ समेहा जी।।
विजयमेरु तीरथ सही तहां जिनथल मुनिशव पावैंजी || मन वच भक्त लगाय कैं || 4 | ऊँ ह्रीं विजयमेरु पांडुकवनसम्बन्धिचतुर्जिनालयेभ्यो अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
विजय मेरु दक्षिण दिशा जंबू वृक्ष बहु विस्तारो जी। तापैं इक जिन गेह है सो पूजौं अरघ संवारौ जी।।
विजयमेरु तीरथ सही पूजैं सुर खग नित सारो जी।। मन वच भक्त लगाय कैं॥5॥ ऊँ ह्रीं विजयमेरु दक्षिणदिशास्थजंबूवृक्षस्यैकजिनालयार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तर दिश इस मेरु की शाल्मली वृक्ष जानौं जी। तापै जिन मंदिर सही ते पूजों अरघ चढ़ानौं जी।।
विजयमेरु तीरथ सही पूजैं सुर खग यह थानौं जी ।। मन वच भक्त लगाय कैं॥6॥ ऊँ ह्रीं विजयमेरुउत्तरदिशायाः शाल्मलिवृक्षस्यैक जिनालयार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरु गजदंत पै जिन थानक है पुन्य दाईजी। सो चारों थल बंदिये ले अरघ महा हरषाई जीं ।
विजय मेरु तीरथ सही पूजैं सुर खग यह थानौं जी ।। मन वच भक्त लगाय कैं।।7। ऊँ ह्रीं विजयमेरु चतुर्गजदन्तोपरिचतुर्जिनालयेभ्यो अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
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