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ऊँ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयानि ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
अथाष्टक (अडिल्ल छन्द)
नीर निरमलो गंग धारको लाइये । सुन्दर झारी घालि हरष बहु पाइये।। जनम-मरण दुख हरन महा थुति गायजी । पूज्य जिनालय विजयमेरु जुतपायजी।। ऊँ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति
स्वाहा।
चंदन बावन अगर गंधले सार जी । निरमल नीर घसाय आप कर धार जी ।। भौ तपरोग मिटावनकौ गुन गायजी । पूज्य जिनालय विजयमेरु जुतपायजी।। ऊँ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयेभ्यो चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत उज्ज्वल खंड विनाही लाइयो । प्राशुक जलतैं धोय शुद्ध करवाइयौ ।। थान अखयका लोभ धार मैं आयजी । पूज्य जिनालय विजयमेरु जुतपायजी।। ऊँ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयेभ्यो अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
फूल कनक चांदी के प्राशुक लेयजी । तिनको हार बनाय शोभजुत जेयजी । कामदहन के काज भक्त धर आयजी । पूज्य जिनालय विजयमेरु जुतपायजी।। ऊँ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नाना रस नैवेद्य आदि मोदक सही । कीनैं शुभ आचार सहित अब इस मही। भूखरोग खय काज आज हम आयजी। पूज्य जिनालय विजयमेरु जुतपायजी।। ऊँ ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिषोडशजिनालयेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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