________________
दोष लगे मन वच तन कोई, ताके क्षयविधि काजे। सो ही रीति करे उर आनी, अपनी शुधता साजे।। प्रतिक्रमण तें भाव शुद्ध करि, आलोचन मन आने।
मैं ते साधु नमों सुख काजे, ता फल मो अघ भाने।। ऊँ ह्रीं प्रतिक्रमणावश्यकसहितसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
त्यागकरण परवस्तु सकत सम, प्रत्याख्यान सुजानो। जो विधि अशन रसादिक कोई, इन आदिक को मानो।। नितप्रति या विधि करे सु सबही, समता जुत चितठाने।
ते गुरु मैं पूजों वसुद्रव ले, शत्रु मित्र सम आने।। ऊँ ह्रीं प्रत्याख्यानावश्यकसहितसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अँह थिति धार जपें जग पीहर, ऐसो साहस धारें। बहु शर ठाम छुड़ायो चाहत, कष्ट बहुत विधि पारे।।
तो हु धीर तजें नहिं आसन, आतम-रस लिपटाये।
मैं ते साधु नमों जुत कर शिर, मन वच शीश नवाये।। ऊँ ह्रीं कार्योत्सर्गावश्यकसहितसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
पद्धरि छन्द जो ऊँच नीच भू लखे न कोय, तृण शिलखण्ड गिने ना कोय। शुध भूमि जीव बिन शयन लाय, ते साधु जजों उर हरष लाय।। ॐ ह्रीं भूमिशयनगुणसहितसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
1354