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सचित अचित तु मिश्र तीनों, विषय श्रवण तने कहे।
शुभ सुने रागी अशुभ सुनिके, दोष जुत उर में थहे।। जिन विषं कर्ण जु आप वश करि, भाव विच समता धरें।।
ते साधु पूजों अध्य कर ले, तास फल सुख संचरें।। ऊँ ह्रीं कर्णेन्द्रियजयनिरतसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
चाल (जोगीरासा की) समताभाव सकल जीवन तें, आप सदृश सब जाने।
संयम तप शुभ रहे भावना, राग द्वेष नहिं आने।। आरत रौद्र न भोग भूमही, निर आकुल रस रीझे।
तिन साधुन के नित प्रति जुगपद, पूजे तें अघ सीझे।। ॐ ह्रीं सामायिकावश्यकसहितसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अरहत सिधकी जो थुति कीजे, भक्तिभाव उर आनी। ताही रस आतमरँग ल्यावे, सो अस्तुति विधि जानी।।
सो साधु भी निश दिन ठाने, मनवचकाय लगाई।
तिनके पद वसु द्रव्य थकी मैं, पूजों इकचित लाई।। ऊँ ह्रीं स्तवनावश्यकसहितसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मनवच तन अरिहन्त सिद्ध को, कर धर शीश नवावें। सो वंदन विधि मुनिनित ठाने, अगले पाप खिपावें।।
ऐसे साधुन के पद पंकज, भक्ति भाव उर आनी।
पूजन करहु दरव आठों से, अध्य तनी विधि ठानी।। ऊँ ह्रीं वन्दनावश्यकसहितसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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