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विविक्त शय्या थल दिढ़ होहे, कायक्लेश कष्टविध जोहे। ये तो बाह्य तने षट् जानो, अब षट् अंतरतप सुनि कानो।। प्रायश्चित अपराध सम्हारे, विनय बड़ों की नमन सुधारें। वैयावृत गुरु को सुख ठाने, सो स्वाध्याय वानि मुख आने।। व्युत्सर्ग काय त्याग विधि होई, ध्यान धर्म मन चिन्ते सोई। अब सुनि षट आवशि की बातें, तातें होय महा शुभदा तें।। सामायिक सब तें समभावा, स्तवन जिन सिध की थुति चाबा।
वंदन सो जिनके सिर नावे, प्रतिक्रमण जो पाप मिटावे।। प्रत्याख्यान त्याग सो जानो, कायोत्सर्ग तन त्याग बखानो। अब सुनि पंचाचार सुभाई, तिन बल बहु जीवन शिव पाई।
ज्ञानाचार ज्ञानविध ठाने, दर्शन सो दर्शन विधि आने। चारित चारु चरित विधि लावे, तपाचार तप रीति करावे।। वीर्याचार पुरुषारथ जानों, अब सुनि तीनों गुप्त बखानों। मन वच तन वश राखे सोई, गुप्ति नाम जाने भवि होई।।
दोहा
इन छत्तिस गुण सहित जो, नमों सूरि मन लाय। ताके गुन पावन निमित्त भव भव होहु सहाय।
ॐ ह्रीं षट्-त्रिंशदगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः पूर्णाध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
उपाध्याय परमेष्ठि पूजा - दोहा अंग पूर्व धारक मुनी, नमों तास पद जान। ता फल अघ मिट शुभ बने, लहे शुद्ध शिव थान।।
ॐ ह्रीं श्री उपाध्याय परमेष्ठिन् ! अत्र अवतार अवतरत संवौष्ट्। (आह्वानं) __ ॐ ह्रीं श्री उपाध्याय परमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्री उपाध्याय परमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्।
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