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जो काय अपने हाथ राखे, चपलता मेंटे सही। परमाद टारि सुधारि थिरता, जारि अघ, ले शुभ मही।।
लखि कायगुप्ति सुनाम याको, सदा आचारज करें।
ते धीर या फल कर्म हरके, मुक्ति सी रमणी वरें।। ऊँ ह्रीं कायगुप्तिसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म दशविध वरत बारह, गुप्ति तीन बखानिये। आचार पांचों महा सुन्दर, षट् आवशि शुभ मानिये।।
ये गुण छत्तीसों, धरें सोही सूर आचारज कहे। तिन चरण कमल सुद्रव्य वसु ले, जजों मन वच तन ठहे।। ॐ ह्रीं षट्-त्रिंशदगुणसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला -दोहा आचारज गुण आरती, कहूं हिये थुति आन। ताको नमि पुनि फल लहें, होय पाप की हान।
पद्धरि छन्द उत्तमक्षमा को कोपभट मार्यो, मार्दव मान जिसो अरि टार्यो।
आर्जव माया कुटनी टारी, सत्पथ को सब झूठ निवारी।। शौच सकल उर को शुचि कीनो, संयम तें अव्रत जय लीनो। तप तपि सकल पाप निरवारे, त्यागभाव पर तें परवारे।।
आकिंचन परिग्रह परिहारे, ब्रह्मचर्य तिय भाव निवारे। ये ही धर्म दशों सुखदाई, अब सुनि द्वादश तप मन लाई।। अनशन वास तनी विधि सोही, अवमौदर्य खान लघु हो ही। व्रत परिसंख्या नित व्रत ठाने, रस परित्यागी रस नहिं जाने।।
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