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सम्मेद शिखर विधान (श्री कविवर जवाहरलाल छतरपुर म.प्र. कृत)
(दोहा छन्द) सिद्धक्षेत्र तीरथ परम् है उत्कृष्ट सुथान। शिखरसमेद सदा नमों, होय पाप की हान।। अगणित मुनि जॅहते गये, लोकशिखर के तीर। तिनके पद-पंकज नमो, नाशे भवकी पीर।।
(अडिल्ल छन्द) है उज्ज्वल यह क्षेत्र, सु अति-निरमल सही। परम पुनीत सुठौर, महागुण की मही।।
सकल-सिद्धि-दातार, महा-रमणीय है। बन्दों निजसुख हेतु अचलपद देत है।।
(सोरठा) शिखरसमेद महान, जग में तीर्थ प्रधान है। महिमा अद्भत जान, अल्पमती मैं किमिक हो।।
(सुन्दरी छन्द) सरस उन्नत क्षेत्र प्रधान है, विपुल उज्ज्वल तीर्थ महान है। करहिं भक्तिसुजे गुणगायके, वरहिं सुरशिव के सुख जायके।।
(अडिल्ल छन्द) __ सुर हरि नर इन आदि, और बन्दन करें। भवसागर ते तिरें, नहीं भव में परें।। सफल होय तिन जन्म, शिखर दरशन करें। जन्म-जन्म के पाप, सकल छिन में टरें।।
श्री तीर्थंकर जिनवर जुबीस, अरु मुनि असंख्य सब गुणन ईश। पहुँचे जॅहते कैवल्य-धाम, तिनको अब मेरो है प्रणाम।
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