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गाथा
जो जण पढई तियालं, णिव्वुड्कंडवि भावसुद्धए। भुंजदि णरसुरसुक्खं, पच्छा सो लहइ णिव्वाण।।
(सुन्दरी छन्द) पढ़हि जे तिरकाल सुचाव सों, निवृतिकांड मनोहर भाव सों। भुगत सुरनरके सुख तापिछै, लहें मुक्ति पुरी सुख तें अछ।।
इत्याशीर्वादः
(गीतिका छन्द) श्रुति देब गुरु जिनबिम्ब जिनगृह, द्रव्य तीरथ जे भने।
जिनगेह भूथल पंचमंगल, क्षेत्र तीरथ ये गने।। कल्याणकाल अरु सिद्धचक्र, व्रतादि तीरथ काल ये। जे रत्नत्रय हैं भाव-तीरथ, ताहि नावत भाल ये।।
सोरठा द्रव्य क्षेत्र अरु काल, भाव तीर्थ ये चार हैं। शिथिलाचारहिं टाल, धर्मरूप इनथल रहो।। इनथल पुण्य जुबन्ध इमि, जिमि सुवृष्टिको नाज। अघ इनथल बन्धन कठिन, वज्रलेप न इलाज।।
(सखी छन्द) निर्वान गिरा नहिंजानी, जिन शारद ना पहिचानी। ताविन शब्दारथनाहिं, निशि दीप विना गृह माहिं।
इति निर्वाणभूमिसमुच्चयपूजा समाप्ता॥
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