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जे कारण संघ-कदाच साध, द्वादश योजन ताई न बाधा जावे जो बरषाकाल माहिं, तो दोष लगे तिनको जु नाहिं।। जे दोष विशेष लग ज्ञानहानि, प्रायश्चितकर शुद्धि न ताहि जानि। तो संघबाह्य मुनि काढ़ि देहि, ज्यों नागवेलि दल गलत तेहिं।।
जे तीन वर्ण धर तन निरोग, वासी सुदेस निकषाय जोग। ___ इन्द्री सुपूर्ण मुनि पूर्णदेह, दीक्षाधर नरबरचिन्ह येह।। जिनके जिनवचन नसों उछाहिं, सुनिये पुनि धारण ग्रहण ताहिं।
सुविचारत तत्त्वस्वरूप भाव, जे दीक्षाधर नर गुन लखाव।। कहुँ अवधि ज्ञानविन तुरिय ज्ञान, कहुँ मनपर जयविन अवधि ज्ञान।।
मनपरचय अवधि विना ऋषीस, लहि केवलज्ञान समस्त दीस।। जे चढ़ि अजोग गुणथल विशाल, लघु पंचाक्षर उच्चरन काल। लागे जो ता उत काल वास, तहाँ तिष्ठ सकल करि कम्मनास।
जे पंडित पंडित मरण पाय, इक समय विर्षे शिवलोक जाय। ते गुरु गुण उरधर “जगतराय', प्रणमै त्रिकाल निजशीष नाय।
(कवित्त) रत्नत्रय वृष क्षमा धैर्य धर, घने शास्त्र पढ़ि पायो पार। कुलवर तन मनोग बहुदिनके, दीक्षित मोक्षाभिलाषी सार। ज्ञान विराग भावना चउ जुत, इत्यादिक गुण लखि गणधार।
तिनको आचारजपद दें सब, सर्व संघ आज्ञा दातार।। ऊँ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादिगुणमण्डितेभ्यः ऋषीश्वरेभ्यः पूर्णाय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
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