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देवकृतचतुर्दशातिशय वर्णन
अर्घ-मागधी वान, सब जीवन सुखदाय हैं।
अतिशय जिन को मान, देव निमित्तक धनि कहें।। ऊँ ह्रीं अर्धमागधीभाषासहित जिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा॥1॥
अँह जिनकी थिति होय, सकल जीव मैत्री समा।
अतिशय जिनके जोय, देव निमित्तक वरनयो।। ऊँ ह्रीं सर्वजीवमैत्रीभावयुतजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।2।।
षटरितु के फल फूल, फलें जहां जिन थिति करें।
जिन अतिशय सुखमूल, निमित मात्र सुर हों सही।। ऊँ ह्रीं षड्ऋतुफलपुष्पसहोपलब्धिसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।3।
दर्पण सी सब भूमि, होय जहां जिन विचरि हैं।
जिन अतिशय अघ-होमि, देवनिमित मातर कहे।। ॐ ह्रीं दर्पणसमभूम्यतिशयसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा॥4॥
मन्द सुगन्धी पौन, होय जीयको हितकरी।
जिन अतिशय शुभ सौनि, मोक्षगमन को है सही।। ॐ ह्रीं सुगन्धितपवनातिशयसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
सर्व जीव आनन्द, होय जहाँ जिन विचरि हैं।
कटत पाप के फन्द, देव निमित-मात्तर सही।। ऊँ ह्रीं सर्वानन्दकारकजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
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