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समोशरण तँह देव, जिनेश्वर थिति करें। जब मुख दीखें चार, भविन को सुख करें।। ऐसो अतिशय केवल, उपजे होय है, ताके पद सुर नरा, जजें मद खोय है।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुखशोभितरहितजिनेन्द्रेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।6।
ऐसो अतिशय केवल, उपजे होय है। ताके पद सुर नरा, जजें मद खोय है।। प्राकृत संस्कृत देश, सकल भाषा सही। सब विद्या अधिपत्य, सकल जानत सही।।
ॐ ह्रीं सकलविद्याधिपत्ययुतजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।7॥
पुद्गल तन आकार, मूरती, बन रह्यो। ताकी छाया नहीं, महा अचरज भयो।। ऐसो अतिशय केवल, उपजे होय है, ताके पद सुर नरा, जजें मद खोय है।।
ऊँ ह्रीं छायारहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।8।
नख कच तन जो होंय, बँधन तिनको रह्यो। हैं जैसे ही रहें, एक गुण यह लह्यो।। ऐसो अतिशय केवल, उपजे होय है, ताके पद सुर नरा, जजें मद खोय है।।
ॐ ह्रीं नखकेशवृद्धिरहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा॥9॥
नेत्रों का टिमकार, नाँहि भौं कच हलें। नासापर दिठ सदा, कालजिन ध्रुव तुले।। ऐसो अतिशय केवल, उपजे होय है, ताके पद सुर नरा, जजें मद खोय है।10॥
सोरठा ये दश अतिशय सार, केवल उपजे जिन लहें। सो जिन हैं भवतार, सेवो भवि वसु द्रव्यते।।
ऊँ ह्रीं केवलज्ञानस्य दशातिशयसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।1।।
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