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केवलज्ञान के दस अतिशय
(अडिल्ल छन्द)
समोसरण जुत जहां, जिनेश्वर थिति करें, तँहतें योजन इक शत, दुरभिख ना परे। ऐसो अतिशय केवल, उपजे होय है, ताके पद सुर नरा, जजें मद खोय है। ऊँ ह्रीं शतयोजनदुर्भिक्षनिवारकजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।1।।
जब जिन केवल लहें, गमन नम में करें। देव असंख्ये गैल, भक्ति मुख उच्चरें। ऐसो अतिशय केवल, उपजे होय है, ताके पद सुर नरा, , जजें मद खोय है || ऊँ ह्रीं आकाशगमनातिशयसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ॥ 2॥
जिनवर जहाँ थिति करें, सदा हितदाय जी । तिस थानक नहिं कोय, मारने पायजी || ऐसो अतिशय केवल, उपजे होय है, ताके पद सुर नरा, जजें मद खोय है।। ऊँ ह्रीं दयाभावातिशयसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा॥3॥
देव नरा पशु खगा, और को दुठ तनी । इन उपसर्ग सु नाहिं वानि जिन यों भनी ।। ऐसो अतिशय केवल, उपजे होय है, ताके पद सुर नरा, जजें मद खोय है।। ऊँ ह्रीं उपसर्गरहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा॥4॥
क्षुध अधिक दुख करे, जगत इस वश पर्यो । सो जि न कबलाहार, खान सब परिहर्यो।। ऐसो अतिशय केवल, उपजे होय है, ताके पद सुर नरा, जजें मद खोय है। ऊँ ह्रीं कवलाहाररहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा॥5॥
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