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ऊँ ह्रीं वचनागोचर-गन्धकुटीसिंहासनसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अयं निर्वपामीति स्वाहा।
गन्धकुटी में सिंहासन त्रय जानिये, श्वेत फटिकमय जान हृदय में आनिये। नानाविध के रतन जड़े तहँ पेखिये, जटकत घण्टा आदिक नैनन देखिये।। ऊँ ह्रीं विविधरत्नमयगन्धकुटी-सिंहासनसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(सुन्दरी छन्द) लसत सिंहासन पर सोहने, कमल सुर-नर को मन-मोहने।
वर्ण लाल लसें सुखकार जू, सहसपत्र विलोक विचार जू।। ॐ ह्रीं सहस्रपत्रयुक्त-सुवर्णकमल-विशिष्टसिंहासनसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कमल-बीच करणिका जानिये, चार अंगल ऊँची मानिये।
लसत श्री जिनराज विशाल जू, करत पूजा इन्द्र त्रिकाल जू।। ऊँ ह्रीं कमलोपरि चतुरंगुलान्तरीक्षजिनसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(अडिल्ल छन्द) जैसी श्री जिनदेव-कान्ति तैसी कही, ताही को भामण्डल पूर रह्यो सही।
अब तीर्थंकरदेव ऊँचाई जानिये, सो कहने परिणाम हृदय में आनिये।। ऊँ ह्रीं जिनतनुसमान-कान्तियुक्त-भामण्डलसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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