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बन रहे वसु जाम शिवान जू रतनजड़ित सु सु निहचे आन जू। लसत है जु कटहरा सार जू, पीठ तजी पर सुविचार जू||
ॐ ह्रीं महाशोभायुक्त-तृतीयपीठसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पीठ तीन सु ऊपर जानिये, लसत गन्धकुटी मन आनिये। गन्धकुटी चौकोर निहारिये, बनि रहो सुन्दर सु विचारिये।।
ऊँ ह्रीं पीठत्रयोपरि समुचतुष्टकोणगन्धकुटीसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
(अडिल्ल छन्द)
अब जु गन्धकुटी को वर्णन जानिये, लम्बी छहसौ धनुष वृषभ के मानिये। इतनी ही चौड़ाई नयन निहारिये, नवसै धनुष उतुंग जु यह मन धारिये।। ॐ ह्रीं गन्धकुटीसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तेइस के क्रमहीन जान सुखकार जू, फिर कैसी है गन्धकुटी सुविचार जू सार सुगन्ध-समूह पूर तामें रह्यो, 'गन्धकुटी' यह नाम जान तातें कह्यो । ऊँ ह्रीं अन्तित्रयोविंशतिजिनेन्द्राणां क्रमहीनविस्तारापन्न-गन्धकुटीसंयुक्तसमवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जहाँ विराजत श्री जिनदेव सुहावने, सो सुथान को वर्णन सुन गुणगाव । ज्ञानगम्य सो जान कहै को सारजू, वचननद्वार को बाँचे सो सुखकार जू
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