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ॐ ह्रीं स्तम्भशिखरामरगोलायुक्त-द्वितीयपीठसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अयं निर्वपामीति स्वाहा।
बन रह्यो श्री मण्डप देखिये, बंधिय झालरि मोतिन पेखिये।
और रचना बहुत बनी तहाँ, लसत कलशा तुंग ध्वजा जहाँ।। ऊँ ह्रीं विविधरचनायुक्त-श्रीमण्डपसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
तरु अशोक सु नयन निहार कें, नशत शोक महाभय धार कें। जडित हीरा मूल सु जानिये, कनकमय शाख परमानिये।। पत्र पन्ना के रंग देखिये, फूल लाल सु नयनन पेखिये।
फल मनोहर सुन्दर गाइये, लसत मण्डप पर सो छाइये।। ॐ ह्रीं श्री मण्डपपोपरि विविधरचनायुक्ताशोकवृक्षशोभासंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पीठ दूजी आठ दिशा गनो, तहँ सु आठ ध्वजा लहकें भनो।
चक्र-हाथी-सिंह विशेषिये, नभ सु माला वृषभ सु पेखिये।। गरुड़-कमल-पताका के विर्षे, लसत चिन्ह सु लहकतही दिखें।
वसु सु-मंगलद्रव्य धरी तहाँ, धूप-घट सुन्दर सोहे जहाँ।। ऊँ ह्रीं अनेकरचनयुक्तद्वितीयपीठसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
पीठ तीजी नयन निहारिये, धनुष एक हजार सु मानिये।
कही सूची सुन्दर गाय के, धनुष चार सु ऊंची पाय के।। ऊँ ह्रीं एकसहस्रधनुरायत-चतुर्धनुरुच्चतृतीयपीठसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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