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(सवैया छन्द) पांच साढ़े चार-चार साढ़े तीन-तीन ढाई, दोय डेढ़ एक सौ धनुष उर आनिये। नवै असी सत्तरि धनुष साठि जानिये, पचास गिन पैतालीस चालिस प्रमानिये।। पैतिस जु तीस अरु पचीस बीस पन्द्रहदश, सवा-द्वै-पौने-द्वै धनुष सु पेखिये। चौबिस जिनेश-काय तुंगता दई बताय, भव्यजीव हिये लाय शीश नाय देखिये।। ऊँ ह्रीं एतत्पद्योक्त-जिनकायोच्चता-शोभासंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चार कोट वेदी पांच चौगुने जिनेश जु, ऊंचे कहे गात भैया देखो मन लाय कें। मन्दिर जिनेश-थान कोट वेदी द्वार जान, तूप मानस्तम्भ धरें पर्वत बनाय कें।। क्रीड़ा के सु थान नृत्यशाला कल्पवृक्ष जान, सिद्धारथ वृक्ष सार सुन्दर सु लीजिये। बारे कोठा बीच श्री मण्डप विराजमान, बारह गुणे ऊंचे जान देख प्रभू जीजिये।। ऊँ ह्रीं समवसरणरचना-तुंगताप्रमाणसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीमण्डप पूजा प्रारम्भ
(अडिल्ल छन्द) श्री मण्डप में जान विराजें देव जू, सुर-नर पूजत पांय करें नित सेव जू। हम पूजत शिरनाय यहां कर थापन, जजत जिनेश्वर-पाय लहें हित आपना।। ऊँ ह्रीं समवसरणस्थ चतुर्विंशतिजिनेन्द्राः अत्र अवतार अवतरत संवौष्ट्। (आह्वानं) ऊँ ह्रीं समवसरणस्थ चतुर्विंशतिजिनेन्द्राः अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्)
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