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ऊँ ह्रीं सप्तभूमौ विविधरचनायुक्त-जिनमन्दिरसंयुक्त-समवसरणस्थित जिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। तिन मन्दिर के शिखर चले आकाश में, ऊपर कलशा सुन्दर सोहें तासतें।
दण्ड धरें सो ध्वजा लहकती देखिये, सुर-नर टेरत मनो सु नैनन पेखिये।। ऊँ ह्रीं सप्तभूमौ विविधरचनायुक्त-जिनमन्दिरसंयुक्त-समवसरणस्थित जिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कहुँ मन्दिर में देव सु पौढ़े सार जू, सुन्दर शय्या परम सुखकार जू। कहुँ मन्दिर में बीन बजे सुरताल सों, कहुँ बाजें मुहचंग मृदंग सु ढार सों।। कहुँ मन्दिर में थेइ-थेइ-थेई ध्वनि हो रही, गांवें जिनगुण सुरी हरष हिय में सही। ___कहुँ बनी हैं सार नृत्यशाला जहाँ, करें सु सुन्दर गान नचे सुर-तिय तहाँ।।। ऊँ ह्रीं एवंविधानेकरचनासंयुक्त-समवसरणस्थित जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
(सुन्दरी छन्द) तिन सु मन्दिर बीच निहारिये, चौक कुरसीदार विचारिये।
रतन-जडित लगे सोपान जू, चढि मन्दिर ऊपर मान जू।। ऊँ ह्रीं सप्तभूमौ मन्दिरमध्यचतुष्टकोपरि मण्डपसंयुक्त-समवसरणस्थित जिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सहस एक सु खम्भा जानिये, चौक ऊपरतें परमानिये। बनरहो मण्डप सुखकार जू, ध्वजा कलशा लसत निहार जू।। ॐ ह्रीं सप्तभूमौ मध्य चतुष्कोपरि मण्डपसंयुक्त-समवसरणस्थित जिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लसत तोरण सुन्दर पेखिये, रतनमाल सु लहकत देखिये।
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