________________
ॐ ह्रीं सप्तभूमौ चतुर्थवेदिकाचतुर्थशालमध्ये आत्मलीन - दिगम्बरयतिसंयुक्त समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव लौकान्तिक पाड़े-विषें, वसत ते सुन्दर चित्रित दिखे।।
कहूँ सु नभ चित्राम सु देखिये, छिपत बादर में रवि पेखिये।। निकसि ज्योति सु जगमग जानिये, लाल-श्याम सु श्वेत प्रमानिये।
बैंगनी कहुं जरद निहारिये, कहुं सुरंग प्रियंगु विचारिये।। श्याम देख घटा सु निहारिके, चमकती बिजली लख धारिके, देखि कुहक मोर सुआनियो, नृत्य करत सु चित्र प्रमानियो ।।
ऊँ ह्रीं सप्तभूमौ नानाविधचित्रचित्रित चतुर्थवेदिकासंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अडल्ल
वेदी भाग सु चार हृदय में आनिये, श्वेत- वरन हैं कोट सु चौथो मानिये । हीरा ही की बनो भाग सो चार जू, रचो धनदद- निज- हाथ महासुखकार जू ।। ॐ ह्रीं सप्तभूमौ चतुर्थशाल-चतुर्भागसमवेत-वर्णवेदिकासंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वलय व्यास बाईस भाग सो पेखिये, नानाविध मन्दिर-पंक्ति तह देखिये। कंचनमय खम्भा तिनके परमानिये, हीरन - करि सो जड़ित हिये में आनिये ।। ऊँ ह्रीं सप्तभूमौ द्वाविंशंतिभाग-वलयव्यासंयुक्त-मन्दिरपंक्तिसंयुक्त-समवसरणस्थित अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दुखनी तिखनी और चौखनी सार जू, बनीं बैठकें सुन्दर शोभादार जू। दल - परदा मोतिन की झालर पेखिये, नाचें देवी- देव - विद्याधर देखिये ।।
जिनेन्द्राय
1272