________________
इत्याशीर्वादः। सप्तम भूमि वर्णन प्रारम्भ
(भुजंगप्रयात छन्द) गिनो सातवीं भूमि सुन्दर सु खासी, बने तूप जानों महा सौख्य-रासी। गिनो और बाँई गिनो और दाँई, सु अन्तर-गली बीच के माँहि भाषी।।
बने द्वार-सारं आभ्यन्तर निहारं, सु चौथी विचारं सु वेदी प्रमानो।
कंगूरा विराजें भले बुरज राजें, सु सुन्दर सु छाजें हृदय-माँहि आनो।। ऊँ ह्रीं सप्तमभूमिगल्याः स्तूपवामदक्षिणाभागे अन्तरगल्याः द्वारे आभ्यन्तरे चतुर्थवेदिकासंयुक्त
समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(सुन्दरी छन्द) जान वेदी में चित्राम जू, लसत सुन्दर हैं अभिराम जू।
कहीं श्री मुनि-संघ विराजते, देखिये चित्राम सु राजते।। ऊँ ह्रीं विविधचित्रयुक्त-चतुर्थवेदिकासंयुक्त समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कहुँ सु मुनिवर ध्यान सु धर रहे, कहुँ सु वृष-उपदेश भले कहे।
गिरि-विर्षे ठांढ़े धरि जोग जू, चित्र ऐसे विरकित-भोग जू।। ऊँ ह्रीं सप्तभूमौ चतुर्थ वेदिका चतुर्थशालामध्ये धर्मोपदेशक-यतिचित्र-संयुक्त
समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
चलत भूमि सु नयन निहारिकें, देखियत मुनिराज विचारकें। देत श्रावक दान सु जानकें, रतन बरषत तिन घर आनकें।।
1271