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झकझकात सु जोति उदय कही, पुण्य जान सु जिनवर को सही।। ऊँ ह्रीं सप्तभूमौ श्रीमण्डपसंयुक्त-समवसरणस्थित जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुभग गन्धकुटी तहँ जानिये, तीन सिंहासन परमानिये।
छत्र तीन सु शिर पर सोहने, लसत केवलज्ञानी मोहने।। ऊँ ह्रीं सप्तभूमौ श्रीमण्डप-केवलिजिनसंयुक्त-समवसरणस्थित जिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(अडिल्ल छन्द) ताही में श्रुतकेवलि बैठे देखिये परम धरम दातार सु नैनन पेखिये। चारों कोने चार सु छोटे जानिये, लघु-मण्डप-परमान हृदय में आनिये।। ॐ ह्रीं सप्तभूमौ श्री मण्डपे श्रुतकेवलिसंयुक्त-समवसरणस्थित जिनेन्द्राय
अयं निर्वपामीति स्वाहा।
तिनही में मोतिन की झालर सार जू, बँधी सु बन्दनवार रतनमय धार जू।
तँह जिनवाणी चार सुशास्त्र बखानते, सुने भव्य जे जीव लहें वर जानते।। ऊँ ह्रीं सप्तभूमौ विविधरचनासंयुक्त-समवसरणस्थित जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानगम्य सो जान देख सब अघ हरे, वचनगम्य सो नाहिं कथन कां लों करे। श्री जिन-महिमा सार निहार विशालजी, भाषों वर्णन गाय नाम कवि 'लाल' जी॥
दोहा जो कछु चूक विलोकिये शोधो श्री गुणवान्। क्षमाभाव मो पर करो कवि लघुताई जान।। ऊँ ह्रीं सप्तभूमौ विविधरचनासंयुक्त-समवसरणस्थित जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
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