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रही बीच में भूमि तासु वर्णन कहो, चारों विदिशा-माँहि सु वन सुन्दर लहो।
कल्पवृक्ष के जान समूह चले गये, आसपास चौतरफा सुन्दर शोभये।। ॐ ह्रीं षष्ठभूमिं परितः कल्पवृक्षसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्ष काहे ते नाम सु पाइयो, जो मनवांछित वस्तु देय हर्षाइयो। कहे सु दश परकार भेद तिनके सुनो, श्री जिन-पुण्य महान् विभव ऐसो गुनो।। ॐ ह्रीं षष्ठभूमौ मनोवांछितवस्तुदायक-कल्पवृक्षसंयुक्त समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(सुन्दरी छन्द) सुभग भाजन एक सु देत है गृह बने दूजो सुख-हेत हैं। सुभग आभूषण तीते दये वस्त्र सुन्दर चौथी तरु लये।। पाँचमो भोजन सुखकार जू पेय-वस्तु छठी उर-धार जू। जोति जगमग जान सु सातमों सुभग माला देता आठमों।।
देत बाजे नवमों जानिये देत दीपक दशमों मानिये।
वस्तु मनवांछित शुभ सार जू देत हैं तरु आनंदकार जू।। ऊँ ह्रीं षष्ठभूमौ दशप्रकारकल्पवृक्षसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लसत वन सुन्दर सुखकार जू कल्पवृक्षन को दिश चार जू।
बन रहे मन्दिर तहाँ देखिये वापिका अरु ताल सु पेखिये।। ऊँ ह्रीं षष्ठभूमौ वापिकाद्रहमन्दिरसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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