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(भुजंगप्रयात छन्द) धरें ध्यान भारी सु आतम विचारी, महापुण्यधारी लसें संयमी जू।
हनी मोह-फाँसी सदा सौख्य-राशी, स्वपर-भेद-भाषी कषायें दमी ज।। ऊँ ह्रीं षष्ठभूमौ आत्मध्यानयुक्त-पुण्यसम्पादक-महामुनिसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लखें नर जू देवा करें चर्ण-सेवा, सुनें धर्म भेवा भले भेद गाई।
चले भव्य आवे तिन्हें शीश नावें, भले सौख्य पावें लहें ज्ञान भाई।। ऊँ ह्रीं षष्ठभूमौ विविधस्थानेषु धर्मोपदेशकदिगम्बरयतिसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कहूं सार पर्वत बने सौख्यकारी, सु तिनकी शिखर पर शिला शुद्ध भारी।
तहाँ मुनि विराजे धरे ध्यान गाजे, सवै पाप भाजे सु एकाविहारी।। ॐ ह्रीं षष्ठभूमौ ध्यानाढयतियुक्त-पर्वतसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तहां देव क्रीड़ा करें भांति नीकी, जजें चर्ण मुनि के जु पूंछत सु जी की। करें वर्न गुरु जी सुनो सार सुर, जी, जगे भाव उर जी भली-भांति जाके।।
लखें भेद आपं भने पुण्य-पापं, जमैं भव्य जापं नशें पाप ताके।। ऊँ ह्रीं षष्ठभूमौ स्वपरोपकारीदिगम्बरयतिसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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