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________________ (सुन्दरी छन्द) नृप यशोधर के सुत पांच सौ, सरस देश कलिंग विर्षे सु जे। रूचिर कोटिशिला मुनिकोटि जे, गये मुक्ति तिन्हें कर जोड़ में।। ऊँ ह्रीं श्री यशोधरपुत्रस्य कलिंगदेशेशीयपंचशतकभूपत्यादिकोटिप्रमितमुनीनां निर्वाणास्पदेभ्यः कोटिशिलासिद्धक्षेत्रेभ्यः अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। गाथा पासस्स समवसरणे, सहिया वरदत्त मुणिवरा पंच। रेस्सिदीगिरिसिहरे, णिव्वाणगयाणमो तेसिं।। अडिल्ल समोसरण वर सहित, पाश्वजिनदेव जी। रेसन्दीगिरि पर्वत, आये देव जी।। श्री वरदत्त आदि मुनि, राज तहां गये। निर्वानक ते साध, पूज्य त्रयजग भये। ॐ ह्रीं श्री वरदत्तादिपंचर्षीश्वराणां निर्वाणास्पदेभ्यः श्रीरेशन्दीगिरि (नयनागिरि)सिद्धक्षेत्रेभ्यः अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। (चौपाई) निःबृति जीवन जेह प्रमान, चतुरवीस जिन आदि बखान। दौसै साड़े चौदा कोड़ि , द्वादश शतक इक्यासी जोड़ि ॥ और असंख्य परम ऋषिराज, लोकशिखर लहि तजि जगकाज। इसही भरतक्षेत्रतें वीर, तिनहिं चितारि जजत हम धीर।। ऊँ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरादिद्वादशशतैकाशीप्युत्तरद्विशतसार्धचतुर्दशकोटिमुख्यमुनीनामन्येषां चासंख्या तमुनिवराणां निर्वाणापदेभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यः अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा। 124
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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