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नानाविध के वृक्ष बद्ध-श्रेणी कहे, छह ऋतु के फल-फूल बहुत सो लहलहे।
मनहुँ जिनेश्वर-चरण पूजिये को चले, ऐसी शोभा लिये सरस सुन्दर रले।। ऊँ ह्रीं षड्ऋतु-फलपुष्पयुक्तश्रेणीबद्धवृक्षचैत्यमन्दिरस्थ-जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन वृक्षान की शाखा सुदर सारजू, मन्द-पवन को पाय परमहित धार जू।
___ नम्रीभूत सु भई मनो नाचें सही, शोभें वृक्ष महान् सु सुन्दरता लही।। ऊँ ह्रीं चैत्यभूमि-वृक्षतलेषु अनेकशिलासु दिगम्बरमुनिसमूहसहित-चैत्यमन्दिरस्थ जिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कैसे है मुनिराज दया के धाम जू, संसारी जो भोग-त्याग अभिराम जू।
परम-उदासी-दशा धरे जो जनिये, देखि दशा वैराग्य जगे परमानिये।। ॐ ह्रीं चैत्यभूमि-दिगम्बर-मुनिसंयुक्त-चैत्यमन्दिरस्थ जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐसी शिला विशाल सुथि र हैं तासु पै, जिनआतम को दर्शन देखत जासु पै।
जीवन-समूहन को सो धरम बतावते, अनागार-सागार भेद द्वे गावते।। ॐ ह्रीं चैत्यभूमिशिलासु द्विविधधर्मोपदेशक-दिगम्बरयतिसंयुक्त-चैत्यमन्दिरस्थ जिनेन्द्राय
___ अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करमपुंज छय करें महामुनिराज जू, तिन वचनामृत सुने सु आतम-काज जू। तुरत जगे वैराग्य सु दरश विशाल जे, ऐसे श्री मुनिचरण न में कवि 'लाल' जू।। ॐ ह्रीं चैत्यभूमिकर्मविध्वंसकदिगम्बरयतिसंयुक्त-चैत्यमन्दिरस्थ जिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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