________________
(मदअवलिप्तकपोल छन्द) पाँच-पाँच मन्दिरन, बीच जिनमन्दिर जानो। प्रथम जानि आग्नेय, सु नैर्ऋत दूजा आनो।। वायव अरु ईशान, चार विदिशा स बखानों। इन ही में जिनभवन, जजें सुर शिवसुखदानो। ॐ ह्रीं चतुर्विदिशासु पंच-पंचमन्दिरमध्य-जिनमन्दिरसंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा तासु भूति को जान वलय व्यास सु विचार णू। वायव भा बखान भाषो जिन सुखकार णू।। ऊँ ह्रीं वायव्यदिशयां वलय-व्याससंयुक्त-चैत्य भूमि संयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्यभूमि मन्दिर सु तनी तुम जानियो, बनी बावड़ी तालवृक्ष परमानियों।
नानाविध रचना करि शोभित भूमि णू, देवी-देव-विद्याधर छाये झूमि णू।। ॐ ह्रीं सरोवर-वापिका-ताल-वृक्षयुक्त-चैत्यभूमि-मन्दिरसंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय
अयं निर्वपामीति स्वाहा।
सर-सरोवर सार वपिका पेखिये, तिन में बने सिवान सु नैनन देखिये।
आभ्यन्तर वापी के ऊपर जानियों, बनी बैठकें सुन्दर परम प्रमानियो।। ॐ ह्रीं चैत्यभूमि-सरोवर-वापिका-सोपान-विष्ठरसंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय
अयं निर्वपामीति स्वाहा।
वापी के चौकोने थम्भ सु चार जू, ताके ऊपर छतरी शोभादार जू। शिखर-बन्द कलशा सु ध्वजा लहकें तहाँ, मन्द पवन मिरदंग पाय नाचें जहां।। ऊँ ह्रीं वापिकायाः कोणस्थ-स्तम्भेषु शिखर-ध्वजा-कलशयुक्त-चैत्यमन्दिर स्थित जिनेन्द्राय
अयं निर्वपामीति स्वाहा।
1215