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ऊँ
श्री समवसरण विधान(स्व. कविवर कुँवरलाल जी कृत)
(द्रुतविलम्बित छन्द)
परम पावन सुन्दर सोहनो, जगतजीव-तने मन- मोहनो। चतुर-बीज जिनेश्वर देव जू, चरण - पूज करूँ नित सेव जू।।
ऊँ ह्रीं श्री चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यः ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्री चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यः ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ऊँ ह्रीं श्री चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यः ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्।
अष्टक (अडिल्ल छन्द)
पदम-द्रह को नीर सु उज्जवल लीजिये। श्री जिन-सन्मुख जाय सुधारा दीजिये।। चौबीसों जिनदेव जजों मन लायके । हरष हिये में धार सुनिगुण गायके || ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन केशर गारि कटोरी में धरौं । श्री जिनचरण - चढ़ाय सु शिवनारी वरों । । चौबीसों जिनदेव जजों मन लायके । हरष हिये में धार सुनिगुण गायके ||
ऊँ ह्रीं श्री चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यः चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
देवजीर सुखदास आदि चावल खरे । चन्द्रकिरण-समउज्ज्वल जिन-आगे धरे ॥ चौबीसों जिनदेव जजों मन लायके । हरष हिये में धार सु जिनगुण गायके || ऊँ ह्रीं श्री चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यः अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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