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तब लों व्रत चारित चाहतु हों, तब लों शुभ भाव सुगाहतु हों। तब लों सत-संगति नित्त रहो, तब लों मम संजम चित्त गहो ॥१३॥ जब लों नहिं नाश करौं अरि को, शिव-नारि वरौं समता धरि को। यह द्यो तब लों हमको जिन जी, हम जाचतु हैं इतनी सुन जी ॥१४॥
घत्ता श्रीवीर-जिनेशा नमित-सुरेशा, नाग-नरेशा भगति भरा। 'वृन्दावन' ध्यावै विघन नशावे, वांछित पावै शर्म-वरा ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहाश्री सन्मति के जुगल पद, जो पूजै धरि प्रीति। 'वृन्दावन' सो चतुर नर, लहै मुक्ति नवनीत ॥
इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
श्रीसमुच्चय अर्घ - त्रोटक सुनिये जिनराज त्रिलोक धनी, तुममें जितने गुन हैं तितनी।
कहि कौन सकै मुखसों सबसो, तिहिं पूजतु हो गहिं अर्घ यही।। ऊँ ह्रीं श्री वृषभादिदीरान्तेभ्यः चतुर्विंशतिजिनेभ्यः पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।1।।
ऋषभ देव को आदि अन्त, श्री वर्धमान जिनवर सुखकार। तिनके चरण कमल को पूजै, जो प्राणी गुणमाल उचार।। ताके पुत्र मित्र धन योवन, सुखसमाज गुन मिलै अपार। सुरपदभोगभोगि चक्री है, अनुक्रम लहे मोक्षपद सार।।2।।
इत्याशीर्वादः ।।इति श्री कविवर वृन्दावनकृत श्री वर्तमानजिनचतुर्विंशति जिनपूजा समाप्ता।
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