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जग-जीत-महारिपु-मोह-हरं, रज-ज्ञान- दृगांवर चूर-करं ॥ १ ॥ गर्भादिक-मंगल-मण्डित हो, दुख-दारिद को नित खण्डित हो। जग माहिं तुम्हीं सत-पण्डित हो, तुम ही भव-भाव विहण्डित हो ॥२॥
हरिवंश-सरोजन को रवि हो, बलवन्त लहन्त तुम्हीं कवि हो । लहि केवल धर्म-प्रकाश कियो, अबलों सोइ मारग राजति यो ॥३ ॥
पुन आप तने गुन माँहिं सही, सुर मग्न रहैं जितने सब ही । तिनकी वनिता गुन गावत हैं, लय माननि सौं मन - भावत हैं ॥४ ॥ पुनि नाचत रंग उमंग भरी, तुअ भक्ति विषै पग येम धरी । झननं झननं झननं झननं, सुर लेत तहाँ तननं तननं ॥५ ॥
घननं घननं घन घण्ट बजै, दृमदं, दृमदं मिरदंग सजै । गगनांगन-गर्भगता सुगता, ततता ततता अतता वितता ॥६ ॥ धृगतां धृगतां गति बाजत है, सुरताल रसाल जु छाजत है । सननं सननं सननं नभ में, इक रूप अनेक जु धारि भ्रमें ॥७ ॥ कई नारि सुबीन बजावति हैं, तुमरो जस उज्ज्वल गावति हैं । कर-ताल विषै करताल धरें, सुरताल विशाल जु नाद करें ॥८ ॥ इन आदि अनेक उछाह भरी, सुर भक्ति करें प्रभु जी तुमरी । तुम ही जग-जीवन के पितु हो, तुम ही बिन कारन तैं हितु हो ॥९॥ तुम ही सब विघ्न विनाशन हो, तुम ही निज आनन्द-भासन हो । तुम ही चित चिन्तित-दायक हो, जगमाँहिं तुम्हीं सब लायक हो ॥ तुमरे पन मंगल माँहिं सही, जिय उत्तम पुन्न लियो सब ही । हम तो तुमरी सरनागत है, तुमरे गुन में मन पागत है ॥११॥ प्रभु मोहि आप सदा बसिये, जब लों वसु कर्म नहीं नसिये । तब लों तुम ध्यान हिये वरतो, तब लों श्रुत चिन्तन चित्त रतो ।।।।
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