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श्री अनन्तनाथजिन-पूजा छन्द - कवत्ति पुष्पोत्तर-तजि नगर-अजुध्या जनम लिया सूर्या - उर आय, सिंघसेन नृपके नन्दन, आनन्द अशेष भरे जगराय।
गुन- अनंत भगवंत धरे, भवद्वंद हरे तुम हे जिनराय, थापतु हों त्रय बार उचारिके, कृपासिन्धु तिष्ठहु इत आय।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम् )
ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक (छन्द गीता तथा हरिगीता)
शुचि नीर - निरमल गंगको ले, कनक-भृंग भराइया। मल - करम धोवन - हेत, मन-वच - काय धार ढराइया ।।
जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो ।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
हरिचन्द कदलीनंद कुंकुम, दंदताप-निकंद है। सब पाप-रुज-संताप-भंजन, आपको लखि चंद है ||
जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों ।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।।
ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
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