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________________ अब मैं तुमरी शरना पकरी, दुख दूर करो प्रभुजी हमरी। हम कष्ट सहे भवकानन में, कुनिगोद तथा थल-आनन मे।9।। तिति जामन मर्न सहे जितने, कहि केम सकें तुमसों तितने। सुमुहूरत अन्तर माहिं धरे, छह त्रै त्रय छः छहकाय खरे।।10। छिति वह्नि वयारिक साधरनं, लघु थूल विभेदनि सों भरनं। प्रत्येक वनस्पति ग्यार भये, छह हजार दुवादश भेद लये।।11।। सब द्वै त्रय भू षट छः सु भया, इक इन्द्रियकी परजाय लया।। जुग इन्द्रिय काय असी गहियो, तिय इन्द्रिय साठनिमें रहियो।।12॥ चतुरिंद्रिय चालिस देह धरा, पनइन्द्रियके चवबीस वरा। सब ये तन धार तहाँ सहियों, दुखघोर चितारित जात हियो।।13॥ अब मो अरदास हिये धरिये, सुखदंद सबै अब ही हरिये।। मनवांछित कारज सिद्ध करो, सुखसार सबै घर रिद्ध भरो॥14॥ घत्ता जय विमलजिनेशा, नुत-नाकेशा, नागेशा नरईश सदा। भवताप-अशेषा, हरन निशेशा, दाता चिन्तित शर्म सदा।।15।। ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। दोहा श्रीमत विमल-जिनेशपद, जो पूजे मनलाय। पूजे वांछित आश तसु, मैं पूजौं गुणगाय।। इत्याशीर्वादः, पुष्पांजलिं क्षिपेत् । 1124
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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