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________________ कनशाल दुति उजियाल हीर, हिमालय गुलकनि तें घनी। तसु पुंज तुम पदतर धरत, पद लहत स्वच्छ सुहावनी।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों। शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रंतवन्त नशावनो।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3। पुष्कर अमरतरु-जनित वर, अथवा अवर कर लाइया। तुम चरन-पुष्करतर धरत, सरशूर सकल नशाइया।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों। शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4। पकवान नैना घ्रान रसना, को प्रमोद सुदाय हैं। सो ल्याय चरन-चढ़ाय रोग-छुधाय नाश कराय है।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों। शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5। तममोह भानन जानि आनन्द, आनि सरन गही अबै। वर दीप धारों बारि तुमढिग, स्व-पर ज्ञान जु द्यो सबै।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों। शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। 1126
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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