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पंचकल्याणक (छन्द द्रुतविलम्बित तथ सुन्दरी) असित दोज अषाढ़ सुहावने, गरभ-मंगल दो दिन पावनो।
हरि-सची पितु-मातहिं सेवही, जजत हैं हम श्री जिनदेव ही।। ऊँ ह्रीं आषाढकृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
असित चैत सु नौमि सुहाइयो, जनम-मंगल ता दिन पाइयो।
हरि महागिरि पै जजियो तब, हम जजै पद-पंकज को अबै।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
असित नौमि सु चैत धरे सही, तप विशुद्ध सबै समता गही।
निज सुधारससों भर लाइके, हम जजें पद अर्घ चढ़ाइयो।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां तप मंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
असित फागुन ग्यारसि सोहनों, परम-केवलज्ञान जग्यो भनों।
हरि-समूह जजें तहँ आइके, हम जजें इत मंगल-नाइकै।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीआदिनाथदेवाय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
असित चौदसि माघ विराजई, परम मोक्ष सुमंगल साजई। हरि-समूह जजें कैलाशजी, हम जजें अति धार हुलास जी। ऊँ ह्रीं माघकृष्णा-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथदेवाय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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