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सरस-मोदन-मोदक लीजिये, हरनभूख जिनेश जजीजिये।
सकल आकुल अंतक-हेतु हैं, अतुल शांत-सुधारत देतु हैं।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निविड मोह-महाताप छाइयो, स्व-पर-भेद न मोहि लखाइयो।
हरण-कारण दीपक तास के, जजत हौं पद केवल-भास के।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर चंदन आदिक लेय के, परम-पावन गंध सुखय कें। अगनि-संग जरै मिस-धूम के, सकल-कर्म उड़े यह घूम के।।7।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरस पक्व मनोहर पावने, विविध ले फल पूज रचावने। त्रिजगनाथ कृपा तब कीजिये, हमहिं मोक्ष-महाफल दीजिये॥8॥ ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल-फलादि समस्त मिलायके, जजत हौं पद मंगल-गायके। भगत-वत्सल दीनदयाल जी, करहु मोहि सुखी लखि हालजी॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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