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चौद में अन्त सु अघातिया जय लई। चेतना शक्ति वर ज्योति परगट भई।। भांति यों अष्ट अरि कर्मदल हनि गये। उर्ध्व जिन गमन कर शिवपुरी थिर गये।। पक्षवर भ्रमर, कार्तिक अमाबस दिना। स्वातिवर नखत परभात समया गिना।।
लोक के शिखर जिनदेव आरूढ़ि यो। सुख अनन्तो निरन्तर जहाँ पूरियो।। मोह अरि बीस वसु प्रकृति जुत क्षय कियो। प्रथम क्षायिक सम्यक्त्व गुन प्रगटियो।।
पंच भट सहित ज्ञानावरन चूरियो। तब अनन्तो दुतिय ज्ञानगुन पूरियो। दर्शनावरण नव प्रकृति जुत दलमलो। तब अनन्तो सुदर्शन तृतिय गुन मिलो।। अन्तराय कराय जा पंच भटन जुत हनो। तब तुरिय वीर्य गुन जिन अनन्तो बनो।।
(पद्धरी छन्द) तेरानव भट जुत नाम मार, पंचम सूक्षम गुण प्रगट सार। चवकटक सहितकर आयुनाश, छटवाँ अवगाहन गुन प्रकाश।। हनि गोत्र करम को जोर ताय, सातम जु अगुरुलघु गुण उपाय। जिन युगल वेदनी घाति पाय, गुण अष्टम अव्यावाध पाय।।
इन आदि अनन्तें गुन समाज, पायो प्रभु मुक्तिपुरी स्वराज। तबही सुरेश बल अवधि पाय, निजसेन साज सब देव आय।।
तादिन वह पुरी प्रकाशरूप, दीपन समूह करके अनूप। धरती आकाश सब दिशनि मांहि, दीपक माला प्रजुलित लखांहि।।
तब परमौदारिक प्रभु शरीर, मंगल पंचम लखि सुर गहीर। शुभगन्ध पहुप आदिक मनोग, वसु द्रव्यनिकर पूजा नियोग।। फिर चन्दन अगरादिक लियाय, तब वर उतुंगसुर सब रचाय। जिनतन मंगलमय तहँ सचाय, तब अग्निकुमार सुशीश नाय।। तिन मुकुटनि करि ज्वाला उठाय, भस्मीकृत शबसब होत तहाय। सब सुर जय-जय कर तासु ओर, उर आनद परम सुभक्ति सोर।। तब प्रथम इन्द्र आदिक सुराय, कर भस्म वन्दना सीस नाय।
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