________________
कहते यह पुरुषोत्तम महान, बर धर्म तीर्थनायक सुजान।। सो देखो अस्त भयो दिनेश, अब मिथ्यातम भ्रमकर प्रवेश।
ये प्रानी वृषतें विमुख होय, करके निज इच्छा मार्ग सोय।। जग में सु प्रवरतेंगे विशाल, इमि पश्चिम (?) सुरगण भक्तिमाल। अपनी पवित्र लखि अमरराय, पुनिकर पूजा निजथान जाय।।
तादिनतें अब या भरत खेत, दीपावलिका प्रगटी उपेत। प्रति वर्ष भव्य पूजा कराय, निर्वाण समय उत्सव सु पाय।। पीछे सुन नर नारिन समाज, कर मोदक ले परिवार साज। अति आनन्द मंगल निरतसोय, कीनोंतिन अतिही कहसुकोय।।
ते सन्मति मति दे अरज येह, तुम करुणासागर विमल नेह। भटके बहुकाल अनन्त बादि, तुम बिन कृपालु जगमें अनादि।।
(अडिल्ल) या भव-वन के मांहि, बहुत दुख पाइयो। जानो ज्ञान प्रसाद, तुमहिं तट आइयो।।
ताते कहने मांहि, कछू आवे नहीं। वांछितार्थ पद तुम कर, पाऊँ प्रभु सही।। ऊँ ह्रीं निर्वाणकल्याणकप्राप्ताय महावीरजिनेन्द्राय पूर्णाध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
(गीतिका छन्द) या भांति निर्वानक सु पूजन, समय की जो विधि कही।
सो नय प्रमाण के न्याय करि, भव्य तुम जानों सही।। यह समय लखि जिन पूज उत्सव, करन भक्ति जु वश सही।
दुर्गतिहरण सुखहेत भवि, करिये परमरुचि कर सही।।
106