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विनयाचार प्रकार का, अर्थ प्रकाशन हार । वैनयिक यह नाम है शास्त्र महा सुख का || ॐ ह्रीं श्री अरहन्त देव कथित ज्ञान दर्शनं चरित्रोपचार लक्षण पंच विध विनय प्ररूपणं विनय शास्त्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥5॥
शिक्षा दीक्षा कर्म को, बतलावे यह शास्त्र । कृति कर्मा तसु नाम है, पढ़त शुद्ध हो गात्र ।। ॐ ह्रीं श्री अरहन्त देव कथित शिक्षा दीक्षादि सत्कर्म प्रकाशक कृति कर्म नाम शास्त्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा॥6॥
पुष्पादिक भेद अरु यत्याचार वताय । दश वैकालिक शास्त्र को नमो भविक सिरनाय ।। ॐ ह्रीं श्री अरहन्त देव कथित द्रुम पुष्पादिक दर्शाधकरै मुनिजनाचरण सूचक दश वैकालिक शास्त्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥7॥
हो उपसर्ग मुनीश का सहनन फल दिखलाय । समय उत्तरययन है नाम जिनेश्वर भाय।। ऊँ ह्रीं श्री अरहन्त देव कथित नानोपसर्ग सहनन निवेदकं उत्तराध्यन शास्त्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥8॥
योग्य सेवन को कहै, सेवन होय अयोग्य । प्रायश्चित बतलाय है गण धर कहत सुयोग्य।। शास्त्र महा सुख है, व्यवहारा शुभ जान। स्वर्ण थाल में अर्घ ले पूजै मन उमगान।। ऊँ ह्रीं श्री अरहन्त देव कथित यतिनाम योग्य सेवक सूचक अयोग्य सेवक प्रायश्चित कथन कल्प व्यवहार शास्त्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥9॥
यति श्रावक आचार को काल देख बतलाय । योग्या योग्य विचार के वर्णन कहत सुखाय ।। ॐ ह्रीं श्री अरहन्त देव कथित काल माश्रित्य यति श्रावक नाम योग्यायोग्य निरूपकं कल्पाकल्प शास्त्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥10॥
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