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जिनवृष उपदेशो हितकार, चलो जात अब ताई सार। परमत खण्डन-मण्डन लोक, तिनप्रति लेफल चरणन ढोक।।
मंगल निर्वाणक महावीर, प्रातः समय पूजो भविधीर।। ऊँ ह्रीं श्री निर्वाणकल्याणप्राप्ताय श्री महावीरजिनेन्द्राय फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
जिनके समोशरण में साध, चौदह सहश एकदश बाध। ऐसे जगत प्रभु पद पाय, ले जलादि पूजों जिनराय।।
मंगल निर्वाणक महावीर, प्रातः समय पजो भविधीर।। ऊँ ह्रीं श्री निर्वाणकल्याणप्राप्ताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
(अडिल्ल) पुष्पोत्तर तजि धवल, जु छट्ट अषाढ़ की। उत्तर फाल्गुन माहिं, बसे वर मायकी।।
अवधि अमरपति जान, रतन बरसाइयो। कुन्दनपुर हरि आय, सु मंगल गाइयो।। ऊँ ह्रीं आषाढ़शुक्लषष्ठीदिने गर्भमंगलमण्डिताय महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा दिवस पंचदस मास वसु, बरस पचत्तर सार। रहे जु चौथे काल के, वीर लियो अवतार।।
(सुन्दरी छन्द) शुक्लचैत्र चतुर्दशि के दिना, नखत उत्तराफाल्गुन सुन गना। सजिगजेन्द्र गिरीन्द्र न्हवाइयो, लखि जिनेन्द्र सुमंगल गाइयो।।
दोहा मृगपति का पगचिन्ह तसु, तन उतुंग कर सात। हेमवरण जिनबिम्ब नित, पूजहुँ भव्य प्रमात।। ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्लत्रयोदशीदिने जन्ममंगलप्राप्ताय महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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