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(अडिल्ल) आयु बहत्तर बरस, कुंवरपद तीस जू। सो लखि अथिर उदास, भये जगदीश जू।। करि लौकान्तिक देव, सुथिर निज थल गये। रचि शिविका झठ नव्य, प्रभू तामें लये।। पुरतें निकट न दूर, मनोहर बन गये। चन्द्रकान्ति मणिमयी, शिलालखि सुर ठये।।
शिविकाते, पधराय, तहाँ सुरगण खड़े। दुविध परिग्रह त्याग, प्रभु समरस बढ़े।। प्राची दिशि सन्मुख, पद्मासन माँड़ि के। नमः सिद्ध कहि, पञ्चमुष्टि कच काढ़ि के।। निज आतम समदेव, सिद्ध सब साख दे। त्र्योदश विध चारित्र, धरयो अभिलाख दे।। मगसिर मास दसें सुदि, जनम नखत परो। ता दिन परम दिगम्बर, पद प्रभु जी धरो।। साल विटप तर बैठि, बेर अपराहिनी। दीक्षा गही मिलाय, शीघ्र शिव भामिनी।।
दोहा जिन शिरकेश पवित्र अति, रतन पिटारे धार। क्षीरोदधि पधराय हरि, निजथल गये नृतकार।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां तपोमंगलमण्डिताय महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति
स्वाहा।
दोहा
तन ममत्व तजि विश्वपति, शिलापट्ट वर पाय। आरूढ़े तप धरत ही, चौथो ज्ञान उपाय।। अजर अमर अव्यक्त जो, अजपा ताको ध्याय। ध्यानसिद्धि के अर्थ प्रभु,
अचल मेरुसम थाय।।
गुप्ति तीन गढ़ तुल्य भये तिनके महा। संजम बख्तर तुल्य भये कहना कहा।।
कर्म-शत्र जीतन की रुचि लागी तब। गण अनेक सेना भट होत भए तब।। अनशनादि तप धारिजु द्वादश भाति जी। ध्यान विर्षे सुविशेष शुद्धता पाय जी।। अट्ठावीस मूलगुण अग्रेसुर कढ़े। कर्म प्रवल अरि तिनहिं जीतने प्रभु बढ़े।
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